हमारी बदलता किशोरावस्था
image by - pixabayनानी-दादी की छांव नहीं हैसं युक्त परिवार टूट गये, साथ ही छूट गया दादी-नानी का प्यार भरा अहसास ओर सरक्षा का भाव। झुलाघर में या अकेले घर में पले हए बच्चे जो स्वयं प्यार के लिए तरसते हैं उन में मानवता के लिए प्यार की भावना आना मश्किल है। दादी-नानी की कहानियों की जजह हिंसात्मक वीडियो गेम जहां जोली चलाना, मार डालना खेल का हिस्सा है, वहां से बच्चों में आपराधिक मानसिकता की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है। उन्हें मरना या मारना कोई बड़ी बात नहीं लगती। आकड़ों की बात की जाए तो किशोरों में आत्महत्या के मामले ही बढ़ रहे हैं। ज़रा सी बात पर अपनी ज़िंदगी समाप्त कर देने में वो परहेज नहीं करते। कई उदाहरण मिलते हैं कि मां ने ज़रा सा डांट दिया बच्चे ने आत्महत्या कर ली। या फिर मां ने टीवी देखने या मोबाइल चलाने को मना किया तो बच्चे ने मां की हत्या कर दी। दोनों ही स्थितियों में मरने-मारने की कोई पर्व योजना नहीं थी। कहीं न कहीं ये हिंसात्मक खेल बच्चों को हिंसा की ओर प्रेरित कर रहे हैं। ये बच्चे हमारे बच्चे हैं। हमारा, हमारे देश का ओर सम्पर्ण मानवता का भविष्य हैं। इनमें इस तरह की आपराधिक भावना आ जाना हमें चेताने को काफ़ी होना चाहिए। किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता के कारणों को समझ कर हमें उन्हें दूर करने की ज़िम्मेदारी सब को लेनी होगी
आजकल के बच्चे कितने बदतमीज़ हो चुके हैं। पर सोचा है क्यों? युवाओं में ग़ुस्से और नतीजतन बढ़ते अपराधों के कारणों पर एक विश्लेषण किशोरावस्था यानी उम्र का वो पड़ाव जिसमें उम्र बचपन व युवावस्था के बीच थोड़ा-सा विश्राम लेती है। यहां न बचपन की मासूमियत है न बड़ों की सी समझ और ऊपर से ढेर सारे शारीरिक व मानसिक और हार्मोनल परिवर्तनों का दबाव...ऐसे में ध्यान देना बेहद ज़रूरी है....
शुरू से ही किशोरावस्था"हैंडल विथ केयर" की उम्र मानी जाती रही है। और यथासंभव परिवार व समाज इनको संभालने का प्रयास भी करता रहा है। पर आज बढ़ती बेअदबी दी कर रही है, तो दूसरी तरफ बाल अपराध के आंकड़े चौंका रहे हैं। अगर मानसिकता की बात करें तो किशोर बच्चे अब बच्चे नहीं रहे। चोरी, बालात्कार और हत्या जिसे संगीन अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। आख़िर बच्चों में इतनी क्रोध व असंयम क्यों पनप रहा है? हम हर बार पढ़ाई का प्रेशर कह कर समस्या के मूल को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। हमें सही कारण तलाशने होंगे।
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1) बच्चों की राय कुछ सम्भव नहीं?
एकल परिवारों में हर बात में बच्चों की राय ली जाती तक यह बच्चों को निर्णय लेना सिखाने व उनकी राय को अहमियत देना ज़रूरी है, पर कौन-सा सोफा लेना है, बच्चों से पूछो घर का नवशा बच्चों से पूछ कर बनाना, यह तो इंतेहा है। जब सब बच्चों से पूछ कर हो रहा है तो बच्चे अपने को बड़ों के बराबर समझने लगते हैं। लिहाज़ा उन्हें हिदायत मिले, तो उन्हें अपना अपमान लगताहै। उन्हें राय देने की आदत पड़ चुकी होती है।
2) बात करने की भी हिम्मत नहीं?
जिन घरों में किशोर बच्चे हें उनके माता-पिता उनके इस अतिशय क्रोध से डरे रहते हैं। बच्चों के माता-पिता यह कहते हैं कि हम तो उससे बात भी नहीं कर पाते, पता नहीं कब नाराज़ हो
जाएं। कहीं न कहीं ये बच्चों के स्वच्छंद हो जाने का कारण है।
3) स्पेस है ज़िम्मेदार
अब परिवार के अंदर एक स्पेस की अवधारणा 'है। माना गया कि हर सदस्य को स्पेस चाहिए यानी ये ज़रूरी नहीं कि वो अपनी हर बात बताए। इस स्पेस ने शायद कुछ अच्छा कियाहो पर दुर्भाग्यवश इसने माता-पिता व बच्चे के बीच एक दीवार खड़ी कर दी। बच्चों ने इसे अपना अधिकार समझा। अब बच्चे कहीं जा रहे हैं, देर से घर आ रहे हैं या किसके साथ जा रहे हैं ये सामान्य से प्रश्न भी स्पेस के घेरे में आ गए हैं। बच्चों पर बड़ों की निगरानी की जो लगाम ज़रूरी थी वो स्पेस की कैंची से काट दी गई। बच्चे निरंकुश हो गए। माता-पिता तो बच्चों का बैग चेक कर ही नहीं सकते। अब वो चाहे स्कूल मोबाइल लेकर जाए या वोडका या चाकू कोई जांच नहीं सकता, तो फिर उन्हें समझाएं तो कैसे समझाएं ?
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(3 पढ़ाई का प्रेशर नया है?
आज बच्चे के हर दोष के लिए पढ़ाई का प्रेशर कह कर उसे दोषमुक्त कर दिया जाता है। बच्चों ये प्रेशर हम ही ने डाला है। रही बात किशोरों की तो उन पर पढ़ाई का प्रेशर हर दौर में रहा है। इसी उम्र में प्रतियोगी परीक्षाएं देकर कैरियर चना जाता है। विफलताएं पहले भी होती थीं, पर अब विफलताएं सहन नहीं होतीं, न बच्चों को, न मां- बाप को। इसीलिए इस प्रेशर का हाइप बना कर हम ही अपने बच्चों के सामने प्रेशर, प्रेशर, प्रेशर जप कर उनके दिमाग़ में यह बिठा देते हैंकि उनके साथ कुछ ग़लत हो रहा है। इसकारण किशोर बौखलाए रहते हैं। क्रोध उनको
अपराध की ओर प्रेरित करता है। उनको मां- बाप, समाज दुश्मन नज़र आते हैं। )
ज्ञान की भी अति है
हमने बच्चों को इंटरनेट के साथ अकेला छोड़ दिया है। वयस्कों से सम्बंधित जनकारी कम उम्र में पा कर जल्दी बड़े होते जा रहे हैं। यहां अगर मेँ पेर्न या अश्लीलता की बात न करूं तो भी बच्चों को समय से पहले अत्यधिक जानकारी है जिसके कारण उनकी मासूमियत खो गई है। एक उम्र चंदा को मामा समझने की भी जरूरी है। आज चार साल के बच्चे को पता है की चंद्रमा एक निर्जीव उपग्रह है वहां तो सांस लेने की हवा भी नहीं। अतिशय जनकारी मासूमियत ख़त्म कर देती है। हम उम्र की एक पायदान ऊपर बढ़ कर बचपन में किशोर, किशोरावस्था में युवा व युवावस्था में प्रौढ़ हो चले हैं। तो क्यों न ये समझा जाए कि आज अपराध किशोर नहीं, एक युवा कर रहा है।
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